Saturday 3 March 2012

कुछ मेरे अपने मोती आपके हारों में सजाने के वास्ते


वैसी दुनिया से क्या लेना जो फ़ानी न हो
वैसे लोगों में क्या मज़ा जिनमें जवानी न हो
वह ज़िन्दगी भी कोई ज़िन्दगी है भला,
जिसकी अपनी कोई ख़ास कहानी न हो .

कहानियां को कहानियां ही होती हैं
कभी सच तो कभी बनी बनाई होती हैं
हमारा काम है मज़ा लेने का
इसमें हमारी कहां रुसवाई होती हैं.

तरीक़ा नहीं आता, न आता तुम्हें कुछ जताना
तुम कहो तो हक़ीक़त, मैं कहूं तो अफ़साना.

तुम्हारे कहने से क्या होता है
सूरज हो, तभी दिन होता है
तुम बात करो हो जीने की
कही ऐसा भी, जीने में कहीं जीना होता है.

Thursday 23 February 2012

सबकी अपनी अपनी हिंदी

प्रमोद जोशी का लेख 'मॉनसून क्यों और मानसून क्यों नहीं?' उन्होंने इस लेख में कहा है कि देवनागरी ध्वन्यात्मक लिपि है तो हमें अधिकाधिक ध्वनियों को उसी रूप में लिखना चाहिए। इससे मैं पूर्णतः सहमत नहीं हूं. देवनागरी पूर्णतः एक ध्वन्यात्मक लिपि है और इसमें कुछ विशेष ध्वनि को छोड़ कर संसार की किसी भी भाषा को लिखने की क्षमता है. इसमें कोई संदेह की बात नहीं है. इसमें किसी भी भाषा को लिखा जा सकता है. उन्होंने अपने इस लेख में आचार्य किशोरीदास वाजपेयी जी के बारे में कहा कि वह नुक्तों को लगाने के पक्ष में नहीं थे। यहां पर मैं असहमत हूं. अगर नुक्ता न लगाया जाए तो देवनागरी सारी ध्वनियों को अपने में समाने का सामर्थ्य नहीं रखती. चूंकि हिंदी में रोमन लिपि का z या उर्दू के ز   ض  ظ के वर्ण उपलब्ध नहीं हैं, जब तक इसमें नुक्ता न लगाया जाए तब तक यह जंग (war) को ज़ंग (rust) में परिवर्तित करने में असमर्थ है. यह अपवाद नहीं. यह हिंदी में अपनाना ही होगा इसे एक समृद्ध भाषा और लिपि दोनों ही बनाने में. अन्यथा अर्थ का मतलब बदले न बदले, इनके उच्चारण के साथ न्याय नहीं हो सकता.

दूसरी बात यह कि देवनागरी पूर्णतः एक ध्वन्यात्मक लिपि है, इसलिए यह ज़रूरी नहीं कि इसमें लिखे जाने वाले शब्द बिल्कुल वैसे ही हों जिस तरह वे अन्य भाषा जैसे अंग्रेज़ी   में लिखे जा रहे हों. उदाहरण के तौर पर ग्राफ़िक को ग्रैफ़िक लिखना और ग्राफ़ को ग्रैफ़ लिखना मैं उचित नहीं समझता. हां, अलबत्ता, यह ज़रूर है कि हम मॉनसून को मानसून भी नहीं लिख सकते. निस्संदेह, इससे भाषा की सुंदरता जाती रहेगी.

तीसरी बात यह कि, हिंदी को हिंदी जानकारों ने एक जीवित भाषा क़रार तो दिया है अपितु इस भाषा के लिए शोध में लोगों ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई है. हिंदी के शब्दों का कोई व्युत्पत्ति विज्ञान (etymology) सामान्य नहीं है. इससे आम विद्यार्थियों को यह पता कर पाना कठिन होता है कि अमुक शब्द आया कहां से. अतः इसे एक जीवित भाषा बनाने के लिए इसके बेचने वालों (समाचारपत्र, पत्रिका, सरकारी एजेंसी, समाचार एजेंसी, इत्यादि) के बीच एक सहमति बनाए जाने की आवश्यकता है और इसके लिए एक मानक शब्दकोष (अब शब्दकोष ही ले लें, कुछ लोग इसे शब्दकोश भी लिखते हैं, इस पर भी सहमति आवश्यक है) अत्यंत आवश्यक है. क्षमा चाहता हूं, लेकिन सरकार जो शब्दकोष निकालती है वे सरकार के पास ही रह जाती हैं. सर्फ़ एक्सेल से हटाए गए दाग़ की तरह ये भी बाजार में तभी मिलती हैं जब इसको बारीकी से ढूंढा जाए. पूर्ण विराम लगाएं खड़ी लकीर की तरह या बिंदु से ही काम चलाया जाय, यह भी एक मुद्दा है.  

तकनीकी शब्दावली की हिंदी, साहित्यिक हिंदी से अधिक परेशान करने वाली बन रही है. तकनीकी हिंदी में कहीं कुछ है तो कहीं कुछ. कोई save का अर्थ सहेजें लगा रहा है तो कोई सेव करें और कोई संचित करें. क्या यह आने वाले दिनों में इन सॉफ्टवेयर के उपयोगकर्ताओं के लिए कठिनाई खड़ी करने नहीं जा रहा है? अलग अलग अनुवादक अलग अलग तरह से शब्दों को ले रहे हैं. सीडैक और माइक्रोसॉफ्ट जैसी दो संस्थाओं ने इसके लिए अपना एक भाषा पोर्टल ही लॉन्च कर दिया है जहां अनुवादक इन भाषा पोर्टल का सहारा ले कर अपना अनुवाद करते हैं. हास्यास्पद यह है कि दोनों में बहुत  कम समानता है. कई शब्द ऐसे हैं जिनके बीच भेद करना कठिन है. उदाहरण के लिए हिंदी की एक स्थिति के लिए अंग्रेज़ी के position, status, condition हैं. ऐसी स्थिति में, अनुवाद हुए इस सॉफ्टवेयर पर कार्य करने वालों के ह्रदय और मस्तिष्क की जवाबदेही इश्वर भी शायद ही ले सके! इसी प्रकार, कई ऐसी जगह जहां पहले से प्रचलित शब्द हिंदी में मौजूद हैं तो फिर उनका उपयोग क्यों न किया जाए. उदाहरण के लिए टेलीफ़ोन को हिंदी में क्यों टेलीफ़ोन कहा जाए? इसे दूरभाष क्यों न कहा जाए? इस में आपत्ति कहां है? लेकिन जहां पर शब्द हैं वहां पर उसका उपयोग नहीं करेंगे और जहां नहीं है वहां अपनी हिंदी डालेंगे. यह हिंदी को मातृभाषा नहीं मात्रभाषा बनाने का तरीका है. एक बार मैंने हिंदी दिवस पर फेसबुक पर एक 'हमारी भाषाअलापने वाले व्यक्ति की पोस्टिंग पढ़ी. वहां  यही 'मात्रभाषा को बचाओ' लिखा हुआ था. अब हमें तय करना है कि हमें मातृभाषा को बचाना है या मात्रभाषा को. यदि मातृभाषा को बचाना है तो उसी तरह इसे बचाना होगा जिस तरह हम अपनी माँ को गालिओं से बचाते हैं. 

यह बात केवल हिंदी समाचारपत्रों या पत्रिकाओं तक ही सीमित नहीं है बल्कि अमिताभ बच्चन जैसे महानायक इस बात को कहते हुए नहीं थकते कि हिंदी फिल्म उद्योग ने पूरी दुनिया को हिंदी सिखाया है. वहां भी हिंदी की बेचारगी झलकती है. कुछ सालों पहले, बहुत पुरानी बात नहीं है, हम सबको अच्छे से यह याद होगा, एक फिल्म आई थी 'ओम शांति ओम' जिसका एक बड़ा प्रचलित संवाद था अगर इंसान किसी चीज़ की इच्छा मन से कर ले तो पूरी कायनात उसे पूरा करने के लिए साज़िश में लग जाती है'. यह असल में पाउलो की किताब अल केमिस्ट से ली गयी थी जहां पाउलो हमेशा अपने पात्र के माध्यम से यह कहलवाता है, जो उस किताब की कई सुंदरताओं में से एक है. यहां तो कायनात का बला**** हुआ न? साज़िश शब्द हमेशा से ही एक नकारात्मक शब्द रहा है. हम मनुष्य सदियों से एक दूसरे के खिलाफ़ इसका उपयोग करते आ रहे हैं. क्या कायनात कभी साज़िश जैसा घिनौना कार्य करती है? तो, हम क्या कहें ? यह कहें की हमारे हिंदी फिल्म जगत की भी एक अपनी हिंदी है. उसी प्रकार दशकों से प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने ख़िलाफ़त को विरुद्ध या विरोध का दर्जा दे दिया. कई फिल्मों और बड़े बड़े समाचारपत्रों में मैंने देखा की ख़िलाफ़त का उपयोग विरोध के लिए हो रहा है जबकि इसके लिए मुख़ालिफ़त सही शब्द है और ख़िलाफ़त का इससे कोई लेना देना ही नहीं. ख़िलाफ़त शब्द इस्लाम के ख़लीफ़ा से जुड़ा है.

कुल मिलकर यहां पर मुझे एक बात कहने को मन करता है कि हिंदी केवल गानों की  या किसानों की भाषा नहीं यह विद्वानों की भी भाषा है. यह भारत के कुलीन वर्ग को समझना चाहिए और इसके लिए प्रयास करनी चाहिए कि हम जिस स्तर पर हिंदी में कार्य कर रहे हैं उसी स्तर से अपने प्रयास से हिंदी का एक मानक तैयार करें और इसे और अधिक समृद्ध बनाएं.

Saturday 17 September 2011

वाह ! क्या ज़माना आ गया


बेवकूफों को अक़ल आ गयी 
जालिमों को रहम आ गया 
शजर में बेवक्त फूल आ गया
आसमान में अचानक बादल छा गया 
वाह ! क्या ज़माना आ गया 

नैतिकता पर चल रहे लोग 
शर्म के मारे घरों में  दुबक गएँ 
गुंडे मवाली चोर उचक्कों 
के मन में नीतिओं का उबाल आ गया
वाह ! क्या ज़माना आ गया 

चोरों ने चौकीदारी हथिया ली
चौकीदारों ने समाधी लगा ली
अब चोरी बंद हो गयी है 
बस चौकीदारी टैक्स अच्छा खासा हो गया 
वाह ! क्या ज़माना आ गया 

मंसूर 

Wednesday 14 September 2011

आदमी

हैवानियत की चादर ओढ़े हुए
इंसानियत सिखा रहा है आदमी |
क़त्ल और गारतगीरी को भी
आज सही ठहरा रहा है आदमी |
जंगल के कानून को फिर से
शहरों में ला रहा है आदमी |
आदमी की हैवानियत देख मंसूर
घबडा रहा है आज आदमी |

Thursday 11 August 2011

सच

क्या बात है जो आप नज़र नहीं आते
सिर्फ ख्वाबों में ही मुझे सताते
बड़े बहादुर बनते थे जब मिलते थे
सच सुनने के बाद नज़रें भी नहीं मिलाते


मंसूर

Saturday 30 July 2011

रिश्ते

सब ज़रुरत के रिश्ते हैं रिश्तों की ज़रुरत कहाँ किस को है
सब की परवाह मुझे ही है, मेरी परवाह कहाँ किस को है
है दुनिया में लगाने को गले बहुत लोग मेरे पास
क्या किसी को गला लगाने की फुर्सत मुझे भी है |





                                                           मंसूर    

ख़ामोशी

ख़ामोशी की भी अपनी जुबां होती है 
कुछ न कहते हुए भी बहोत कुछ कहती है 
अगर तुझे कहना न आये तो चुप रहना मंसूर
क्योंकि इससे लोगों में खुशफहमी बनी रहती है |

मंसूर